हम सभी सद्गुरु शिष्यों में यह स्वाभिमान का भाव पूर्ण रूप से होना चाहिए कि हम अपने सहपाठियों–सहकर्मियों–परिजनों–मित्रजनों से श्रेष्ठ हैं, क्योंकि हमें सद्गुरु की प्राप्ति हो गयी है । सद्गुरु परमात्म स्वरूप हैं, सद्गुरु की प्राप्ति का अर्थ है–परमात्मा की प्राप्ति । हमारा त्रयताप दुःखों से निवृत्ति एवं आवागमन से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त है । गम्भीरता से विचार कीजिये हम सब कितने भाग्यशाली हैं ?
सद्गुरु की प्राप्ति के पश्चात हमारा प्रथम कर्त्तव्य है कि हम सद्गुरु के आदेशों का अक्षरसः पालन करें । इसमें किसी भी स्थिति–परिस्थिति में कोताही न करें । इसमें ही हमारा कल्याण निहित है ।
सद्गुरु का आदेश क्या है:– साधना–सेवा–सत्संग ।
सन्सार की चिंता हम क्यों करें ? सद्गुरु देव जी ने तो कहा है–"मैं चारों फ़ल का प्रदाता हूँ । मैं अपने शिष्यों–भक्तों का योगक्षेम करता हूँ ।"
सेवा एवं सत्संग तो हम थोड़ा-बहुत कर भी लेते हैं, परन्तु साधना में हम अब काफ़ी पीछे हैं (साधना के सम्बन्ध में हम स्वयं से प्रश्न करें तो यही उत्तर आएगा) ।
हम विधिवत साधना करें । हमारा यह प्रयास(पुरुषार्थ) होना चाहिए कि हम वर्तमान शरीर से जीवन्मुक्त अवस्था प्राप्त कर लें, परमात्मा की प्राप्ति हो जावे, पुनः हमें प्रकृति में न आना पड़े(आवागमन से मुक्ति पा जायें) ।
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