हम सदगुरु के शिष्य, सदगुरु की महानता एवं हमारे जीवन में उनके महत्व से भलीभाँति वाकिफ़ हो गए हैं । हम जान गए हैं कि सदगुरु की कृपा से ही हमारा सर्वांगीण विकास सम्भव है । हम जानते हैं कि सदगुरु की प्रसन्नता में ही हमारा कल्याण है । हम यह भी मानते हैं कि हमारी समस्याओं, उलझनों, रोगों का निदान सदगुरु दया से सम्भव है । हम यह चाहते हैं कि सदगुरु हमसे प्रसन्न रहें, हम पर सदैव सदगुरु कृपा की बारिश होती रहे, सदगुरु की दया दृष्टि हम पर बराबर बनी रहे । हम सदगुरु से स्वयं के लिए बहुत कुछ चाहते हैं, परन्तु हम स्वयं के कर्त्तव्य के प्रति पूर्ण रूप से उदासीन हैं, विशेषकर "साधना(ध्यान)" के विषय में । हमें यह मानना पड़ेगा कि जितना समय हमें साधना में देना चाहिए, उतना समय हम नहीं दे रहे हैं एवं जितनी नियमित हमारी साधना होनी चाहिए, उतनी नियमित नहीं है । जिस प्रकार सन्सार के प्रत्येक कर्त्तव्य को हम अपना 100% देकर निभाते हैं, वही भाव हमारा साधना के प्रति भी होना चाहिए ।
हमारी साधना नियमित रूप से होने लगे, अधिक समय तक हम साधना में बैठने में सक्षम हो सकें, साधना में हमारी उत्तरोत्तर प्रगति हो, साधनात्मक अनुभव हमें होने लगे, हमारा आध्यात्मिक विकास हो, हम एक सच्चे इन्सान बन सकें, हमारी आदतें– विचार– व्यवहार– कर्म आदर्श हों, हमारा व्यक्तित्व प्रभावशाली हो, प्रेम– करुणा– दया– क्षमा– अहिंसा– सहायता ---------- आदि गुणों को हम धारण कर सकें, सांसारिक रिश्तों को हम पूर्ण निष्ठा से निभा सकें, हम हर हमेशा ऊर्जावान रह सकें, हमारे जीवन में उत्साह– उल्लास– उमंग– उत्तेजना का समावेश हो । हम निरोगी एवं दीर्घजीवी हों.....................
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